Tuesday, April 23, 2013

कहानी शिक्षण : खोलती हैं दरवाज़े कहानियाँ

कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालयों में कहानी शिक्षण के अनुभवों को “खोलती हैं दरवाज़े कहानियाँ” के नाम से संकलित किया है, जिसे संधान ने सेव द चिल्ड्रन के सहयोग से प्रकाशित किया है। यह लेख इस संकलन में संपादकीय के रूप में छपा है। इस पुस्तक के लिए चित्रांकन वाग्मी रांगेयराघव ने किया है। उनका बहुत आभार।
कहानी का नाम आते ही मन में कई किरदार जीवन्त आकार लेने लगते हैं। इन किरदारों में सुनी हुई कहानियों के वे शख्स जिनमें जादूगर, परियाँ, प्रेत, जिन्नात, राक्षस, उड़ने वाले घोड़े व कालीन और इन घोड़ों व कालीनों पर सवार कहानी के नायक-नायिका शामिल होते हैं, cover-1जो हमेशा परिस्थितियों व समस्याओं से जूझते हैं। कहानी को सुनते वक्त अनेक बार हमने भी इन पात्रों के साथ खुद को समस्याओं से दो-चार होते पाया है; किसी तिलिस्मी दरवाजे के अचानक बन्द होने पर और अलीबाबा द्वारा पासवर्ड यानी गुप्त शब्द भूलने पर उसे याद दिलाने के लिए ‘खुल जा सिम सिम’ जोर-जोर से चिल्लाया है। रामायण में कभी खुद को राम के साथ रखा। कभी महाभारत में किसी एक पक्ष के साथ न रह पाने पर खुद को ‘जीव की जेवड़ी’ होते पाया। इन कहानियों के उड़ान खटोलों पर बैठ कर हम बचपन में ही समुद्रों, पहाड़ों, कन्दराओं, बीहड़ों, राजनीति के अखाड़ों और युद्ध के मैदानों का एक-एक कोना झाँक आए हैं। किस्सों के इन पात्रों ने छुटपन से ही हमारे ज़ेहन में डर, हर्ष, विषाद, वीरता और सचाई जैसी भावनाओं व अवधारणाओं को गढ़ने में हमारी मदद की है। न केवल मदद की है बल्कि, आज भी इन भावनाओं की डोर थामे वे हमारे अवचेतन में बैठे हुए हैं। इन कहानियों ने हमें हमारी ज़िंदगी की शुरुआत में ही उन अनुभवों से परिचित कराया है जिनसे हमें अपनी ज़िंदगी में अभी साबका करना है। दरअसल यह ज़िंदगी की तैयारी है।
कहानी की दर्ज़ीगिरी
कहानी के ज़िक्र के साथ सबसे पहले अपना बचपन याद आना लाज़िमी है। बचपन के साथ ही नानी, दादी या किसी ऐसे अज़ीज़ का चेहरा याद आता है जिससे खूब ज़िद व मनुहार करके कहानियाँ सुनी हों। ऐसे में अपने पड़ोस के ताऊ जी का चेहरा मेरी आँखों के सामने आ जाता है। सफ़ेद कुर्ता, सफ़ेद तहमद व सिर पर वैसा ही तुर्रेदार सफ़ेद साफ़ा, चेहरे पर हुक्के के धुएँ से पीली पड़ गई सफ़ेद और तिरछी मूँछें। यही मूँछे न जाने ताऊ जी की कितनी कहानियों में राजा, दरोगा, डाकू व मुखियाओं के किरदारों के चेहरों पर, कल्पना के रंग बदल-बदल कर हमने चस्पाँ की हैं। उनकी आँख के नीचे का बड़ा मस्सा कहानी सुनते-सुनते न जाने कब चुपके से राक्षस के चेहरे पर जाकर टंग जाता।
खैर, ताऊ जी का किस्सागोई यानी कहानी कहने में जवाब नहीं था। उनके पास सब तरह के किस्से थे, छोटे से छोटे, बड़े से बड़े। बड़ों के लिए और छोटों के लिए भी। सबके लिए। जब बड़ों की महफ़िल में सुनाना शुरू करते तो किस्सा मीलों लम्बा हो जाता और खत्म होने का नाम न लेता। जाने कहाँ से बीच में गीत और चौपाईयाँ आ जातीं। बात ही बात में ‘बात’ बुझा लेते। कब सवाल और पहेली सरका देते और क्या से क्या बीच में लाकर रख देते - रिश्तेदारियाँ, अय्यारियाँ, समझदारियाँ और देश-दुनिया की मिसालें व मसले। जब कभी ताऊ जी बच्चों की टोली से घिर जाते जो उसी किस्से को दुबारा सुनाने की जिद करती तो ताऊ जी उसी किस्से को गज भर का करके तहा देते। वे ऐसा कैसे करते हैं यह जानने के लिए कई बार कहानी सुनने के दौरान, हम उनकी गोद में बैठ कर उनकी जेबों की तलाशी भी ले डालते कि उनके पास ऐसा कौनसा टेप या फीता है जिससे वे माप-जोख करके किस्से को घटा-ब‹ढा कर लेते हैं?
जब कभी वे बच्चों की विस्मय से फैली आँखों में से झाँकती जिज्ञासा को भाँप लेते तो जम कर किस्सा सुनाते और उनके किस्सों के अन्दर से किस्से निकलते जाते। यूँ लगता मानो उनके किस्सों में जेबें लगी हुई हैं जिसमें से वे सिक्के की तरह खनखनाती कहानियाँ निकालते हैं और बच्चों की हथेलियों पर रखते जाते हैं।
खैर, एक बात पक्की है ताऊ जी कहानी की दर्ज़ीगिरी के उस्ताद थे। खुदा जाने वे नाप कैसे लेते थे - बच्चों की कौतूहल में फैलती आँखों की पुतलियों से या फिर बड़ों के हुंकारा भरने के आरोह-अवरोह से, लेकिन वे सबकी ज़रूरत व रूचि के हिसाब से किस्सों की काटछाँट कर नाप का सील देते। यहाँ तक आकर ताऊ जी कोई एक व्यक्ति नहीं रह जाते, बल्कि यह एक रूपक बन जाता है। वह रूपक है दास्तानगोई का जिसमें दादी, नानी, मामा कोई भी शामिल है या वे जिनका बच्चों के साथ रिश्ता कहानी की मार्फ़त है।
स्कूल और चौखटे में जड़ी कहानी
ताऊ जी पढ़े-लिखे नहीं थे। हम पढ़ गए हैं। आज हमारे इर्द-गिर्द बच्चे भी हैं और उनके सरोकारों से जुड़ने के बहाने व अवसर भी। आज हममें किस्सागो भी है और अध्यापक (ज्ञानी) भी हैं। दोनों हैं एक में ही, लेकिन वजूद अलग-अलग, एक-दूसरे से तन्हा-तन्हा। दोनों का एक खांचें में फ़िट बैठना हो नहीं पा रहा है। एक बरसों से चली आ रही परम्परा से पोषित हुआ है, तो वहीं दूसरे को पोथियों को रटने की अनवरत कवायद के बाद बड़े जतन से पाया है। एक जहाँ अपने होने के साथ ही बच्चों को सहज सवालों और कल्पनाओं में ले जाता है वहीं दूसरा अपेक्षा में रहता है कि सब सीधी लाइन में चलें, अनुशासन में रहें, सपाट सवाल हों, सीधे जवाब हों। ये द्वन्द्व हमारे अन्दर बना रहता है। जब हम पहले दिन स्कूल जाते हैं तो किस्सागो हमारे कंधे पर सवार स्कूल तक जाता तो है लेकिन हम उसे कक्षा के बाहर जूतों की तरह खोल देते हैं। जूते तो जूते हैं, आखिर घिस ही जाते हैं। स्कूल का काम किसी तरह पूरा कर अपने शिक्षक को दफ्तर की किसी कुर्सी पर टांग कर वापस घर लौटते हैं। और फिर से मां, पिता, नानी या ताऊ बन कर किस्सागो के चोले को रफ़ू करने बैठ जाते हैं। मेरा मानना यह कदापि नहीं कि कहानी स्कूली अन्त:क्रिया से पूरी तरह बहिष्कृत है। अक्सर स्कूल बच्चे के हाथ में कहानी पकड़ाता है लेकिन कहानी को चौखटे (फ्रेम) में कस के। स्कूल से लौटे बच्चे को एक बार स्कूल में सिखाई कहानी की एक-दो पंक्ति या शब्द के हेर-फेर से अपनी तरह से सुना कर तो देखिए। बच्चा तत्काल कहता है ‘‘यह गलत है, सही कहानी सुनाओ...” सही कहानी मतलब वह कहानी जिसमें पहले शब्दों व पंक्तियों का व्यवस्थित नपा-तुला क्रम और इस सब पर पालथी मार कर बैठा एक शिक्षा रूपी सूत्र वाक्य, ‘‘इस कहानी से यह शिक्षा मिलती है कि...” और शिक्षा भी न सूत भर कम, न सूत भर ज़्यादा।
एक थे विष्णु शर्मा
हमारे समय की विडम्बना यही है कि ‘ताऊ’ टीचर नहीं है और टीचर से किस्सागो छूटा हुआ है। कहानी कहने वाला हर इंसान में होता है। निस्संदेह शिक्षक में भी। याद कीजिए अपने किसी खुशनुमा अनुभव को, जिसे आपने मित्र मंडली में बड़े उत्साह से दसियों बार सुनाया है। उस वक्त आँखों में जो चमक आ जाती है वह सुनने वालों को भी उसी में रंग लेती है। यह इसलिए होता है कि उस अनुभव से गहन अपनापा होता है और वह भावनाओं से इस कदर जुड़ा होता है कि स्मृति में खच से बैठ गया होता है। कहानी में वह ताकत होती है कि वह जल्दी ही अपनी बन जाती है, भावनाओं से जुड़ जाती है। कहानियाँ किताबों में आराम फ़रमाती हैं लेकिन खेलती किस्सागो की ज़ुबान पर हैं। किस्सागो की ज़ुबान पर आने के बाद कहानी लेखक की नहीं रह जाती और कान तक पहुँचते-पहुँचते जन-जन की हो जाती है।
शिक्षा में कहानी की क्या भूमिका है, इसे विष्णु शर्मा के संदर्भ में समझा जा सकता है। कहते हैं, किसी राजा की संतान उद्दण्ड व नालायक निकलीं। जब राजा को लगाकि राजकुमारों के हाथ से पढ़ने का वक्त छूट जाने के बाद अब कैसे इन्हें शिक्षित किया जाए, तब विष्णु शर्मा नामक शिक्षक ने उन राजकुमारों को शिक्षित करने के लिए पंचतंत्र की कहानियों का ऐसा ताना-बाना बुना कि महज़ छह माह में राजकुमारों को अर्थशास्त्र व राजनीति में निष्णात कर दिया। दरअसल विष्णु शर्मा ने ताऊ जी (किस्सा गो) व शिक्षक को एक कर दिया।
कस्तूरबा गाँधी बालिका विद्यालयों यानी केजीबीवी में जो लड़कियाँ हैं वे न तो हूबहू राजकुमारों जैसी हैं और न यह वक्त विष्णु शर्मा वाला है लेकिन एक बात जो आज भी समान है वह यह कि इन लड़कियों के हाथ से भी प‹ढने का मौका छूटा हुआ था। और उम्र के जिस पड़ाव पर वे हैं वहाँ उन्हें तेज़ गति से सीखने-सिखाने की प्रक्रियाएँ अपनाने की ज़रूरत है।
इसी सोच को लेकर संधान के साथियों ने अजमेर के छह केजीबीवी में कहानी विधा को लेकर प्रयोग किए हैं। उन प्रयोगों के अनुभव यहाँ दिए जा रहे हैं, इस आशा के साथ कि आप भी कहानी से ज़रा नज़दीकी बनाएँ, उसे अपना बनाएँ और विद्यार्थियों के नज़दीक ले जाएं।
कहानी के अनुभव अगली किस्त में...
धन्यवाद
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दलीप वैरागी 
09928986983 

4 comments:

  1. बहुत सुंदर पोस्ट.... हर बच्चे को भाती हैं कहानियां

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    1. धन्यवाद चैतन्य
      आपने मेरी ोपोस्ट पढ़ी और आपको वह अच्छी भो लगी। मुझे इस बात की ख़ुशी हो की मेरे ब्लॉग का पाठक एक छोटा बच्चा भी है। यह बात मुझ आगे की पोस्ट लिखने में बहुत मदद करेगी की मुझे किस तरह की सामग्री और भाषा का चुनाव करना है। मैंने आपका ब्लॉग भी देख जो बहुत अच्चा है । खासकर आपके बनाए हुए चित्र बहुत ही खूबसूरत हैं। आप अपने ब्लॉग का संचालन माँ की मदद से कर रहे हैं इसके लिए आपकी माँ साधुवाद की पात्र है।

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  2. AXA h y lekh हमारे bachpan ki yaden aur kuch sacchi baaten h
    👌👌👌👌👌👌👌👌

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